शेयर मार्केट क्या है – शेयर मार्केट में उपयोग होने वाले शब्दों की पूरी जानकारी

दोस्तों अगर आपको शेयर मार्केट के बारे में जानने की दिलचस्पी है और आप जानना चाहते है कि share market kya hai या आप भी शेयर खरीदना बेचना चाहते हैं तो बहुत जरूरी है कि आपको  शेयर मार्किट की पूरी जानकरी हो और Share Market या Stock Market से जुड़ी terminology यानि शब्दावली पता हो।

अगर कोई इंसान नया बिजनेस शुरु करता है तो वो भी पहले उससे जुड़ी पूरी स्टडी करके ही मैदान में उतरता है। यही बात शेयर मार्केट पर भी लागू होती है।
हम अखबारों और टीवी में बहुत से शब्द पढ़ और सुन लेते हैं और शायद थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं पर उनकी सही और पूरी समझ होना जरूरी है  तभी आपका निवेश फायदेमंद हो सकता है।

Share Market Kya hai puri jankari
Share Market Kya hai puri jankari

इस आर्टिकल की मदद से हम आपकी इस परेशानी को दूर कर देंगे।

हो सकता है कुछ शब्दों की जानकारी आपको पहले से हो पर एक बार इस आर्टिकल को पूरा पढ़ लीजिए यकीन मानिए आपको इससे सरल भाषा में कहीं जानकारी नहीं मिलेगी।

हम पहले कुछ बहुत ही कॉमन शब्दों की जानकारी दे रहे हैं। इसके आगे आपको सारी डीटेल Alphabatic Order में मिलेगी। ताकि आपके लिए किसी particular term को ढूंढना आसान हो जाए।

शेयर मार्किट क्या है – What is Share Market in Hindi ? (Share Market kya hai )

1. शेयर (Share)  – इसका मतलब होता है हिस्सेदारी

जब आप किसी कंपनी का शेयर खरीदते हैं तो आप उसमें अपनी हिस्सेदारी बनाते हैं।

2. स्टॉक (Stock)  – अब लोग स्टॉक शब्द का भी बहुत इस्तेमाल करते हैं।

कॉमर्स की टेक्निकल डीटेल में जाएं तो स्टॉक का मतलब थोड़ा अलग निकलता है पर एक निवेशक की हैसियत से स्टॉक और शेयर ये दोनों शब्द interchangably बोले जाते हैं।

आपके पास किसी एक कंपनी का स्टॉक भी हो सकता है या अलग- अलग कंपनियों के स्टॉक भी हो सकते हैं।

3. शेयर मार्केट (Share Market) – वो स्थान जहां से शेयर की खरीदी और बिक्री की जाती है, इसे स्टॉक मार्केट/ स्टॉक
एक्सचेंज भी कहते हैं।

4. SEBISEBI का फुल फार्म होता है Securities Exchange Board of India.

ये शेयर मार्केट को मॉनीटर और रेग्युलेट करने वाली अथॉरिटी है। बिल्कुल उसी तरह जैसे IRDA इन्श्योरेंस सेक्टर को सुपरवाइज करती है।

5. BSE– BSE का फुल फार्म है Bombay Stock Exchange.

ये भारत ही नहीं बल्कि एशिया का भी सबसे पुराना और सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज है। इसकी शुरुआत 1875 में हुई थी।

6. NSE– NSE का full फार्म है National Stock Exchange. इसकी स्थापना 1992 में हुई थी। इसका मुख्यालय बॉम्बे में है।

BSE और NSE में अंतर और किसमें पैसा लगाएं

जो लोग निवेश की शुरुआत कर रहे होते हैं उनके सामने सबसे बड़ा कन्फ्यूजन होता है कि NSE और BSE में क्या फर्क है? हमें कौन से स्टॉक एक्सचेंज में पैसे लगाने चाहिए? काम तो दोनों एक सा कर रहे हैं। तो आइये पहले कुछ अंतर समझ लेते हैं।

  1. पहला अंतर है शेयर की कीमत का। लेकिन ये अंतर बहुत ही मामूली होता है। जैसे कि एक-दो रुपए से भी कम।
  2. दूसरा अंतर है लिस्टेड कंपनियों की संख्या का। BSE में लगभग 5500 कंपनियां लिस्टेड हैं। NSE में लगभग 1700 कंपनियां लिस्टेड हैं। कुछ कंपनियां दोनों जगह लिस्टेड हैं।
  3. तीसरा अंतर है सूचकांक यानि index का। NSE का index NIFTY है और BSE का Sensex. एक्सपर्ट्स नए निवेशकों के लिए BSE की सिफारिश करते हैं।  जिन लोगों को मार्केट की अच्छी समझ है उनके लिए NSE अच्छा विकल्प है।
  4. किसी नई कंपनी में निवेश करने के लिए BSE अच्छा विकल्प है।
  5. NIFTY 50- इस शब्द को NSE Fifty से बनाया गया है। इसमें टॉप की 50 कंपनियों के आधार पर इंडेक्स बनाया जाता है और मार्केट ट्रेंड देखा जाता है।
  6. SENSEX 30- यह शब्द Sensitive Index को जोड़कर बना है। इसमें टॉप 30 कंपनियों को आधार बनाकर इंडेक्स और मार्केट ट्रेंड का अंदाजा लगाया जाता है।

7. मार्केट कैपिटल– इसे शॉर्ट में मार्केट कैप कहा जाता है। इसका मतलब कंपनी की पूंजी से होता है। इसे पता करने के लिए ये फार्मूला होता है

Market Cap = ( total no of outstanding shares × current share price )

उदाहरण के लिए कंपनी के आउटस्टैंडिंग शेयर हैं 1000 और वर्तमान कीमत है 100 rs तो कंपनी की मार्केट कैप होगी (1000*100) 1,00,000 रुपए।

आउटस्टैंडिंग शेयर के बारे में हमने आगे बताया है। वैसे ही अगर कंपनी के 5000 आउटस्टैंडिंग शेयर हैं और वर्तमान कीमत 50 रुपए है तो मार्केट कैप होगी 2,50,000 रुपए।

अक्सर नए निवेशक ये सोचते हैं कि शेयर का प्राइस ज्यादा होगा तो मार्केट कैप भी ज्यादा होगी पर दोस्तों ऐसा बिल्कुल नहीं हैं। ये बात आपने ऊपर के उदाहरण से समझ ली होगी और यही वजह है कि आपको सिर्फ शेयर की कीमत के आधार पर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। और जिस तरह शेयर की कीमत में बदलाव आता है मार्केट कैप भी बदलती रहती है।

8. लार्ज कैप (Large Cap) -Large Cap वो कंपनी होती है  जिन कंपनियों की मार्केट कैपिटल 20,000 करोड़ रुपए से ज्यादा हो। ये मजबूत कंपनियां होती हैं और इनका बिजनेस अपेक्षाकृत स्थिर होता है। इस वजह से इनमें किया गया इन्वेस्टमेंट लो रिस्क माना जाता है।

9. मिड कैप (Mid Cap) 5,000 करोड़ से 20,000 करोड़ की पूंजी वाली कंपनियां मिड कैप कहलाती है । इनको आप long term investment के लिए prefer कर सकते हैं। ये मीडियम टू लो रिस्क कैटेगरी में आती हैं।

7. स्मॉल कैप (Small Cap) – इस कैटेगरी में ऐसी कंपनियां आती हैं जिनकी पूंजी 500 से 5,000 करोड़ के बीच होती है। इनमें ज्यादातर छोटी कंपनियां, स्टार्ट अप जैसे ग्रुप होते हैं।

ऐसी कंपनियों के फंडामेंटल के बारे में ज्यादा जानकारी भी नहीं मिल पाती है और इनके शेयर बहुत ज्यादा volatile होते हैं। इसलिए अगर आप नए निवेशक हैं और बहुत रिस्क ले सकते हैं तभी इनमें पैसा लगाएं।

8. माइक्रो कैप (Micro Cap) – इनकी कैपिटल 500 करोड़ से कम होती है। स्मॉल कैप की तरह ये भी हाई रिस्क कैटेगरी में आती हैं।

9. पैनी स्टॉक  (Penny Stock) – वैसे स्टॉक जिनकी कीमत दस रुपए से भी कम हो। इनका सबसे बड़ा फायदा और नुकसान यही है कि अगर ग्रोथ हुई तो कम समय में बहुत अच्छे रिटर्न मिल सकते हैं  लेकिन इतना ही रिस्क घाटे का भी रहता है।

दूसरा नुकसान ये है कि इनमें लिक्विडिटी नहीं होती। यानि इनमे  buying and selling कम होती है क्योंकि इन कंपनीज के बारे में लोगों के पास ज्यादा डीटेल नहीं होती। इस वजह से ये इतनी पॉपुलर नहीं होतीं।

इनका कैटेगराइजेशन मार्केट कैप के आधार पर नहीं बल्कि शेयर प्राइस के आधार पर किया जाता है। इनमें ऑपरेटर या सट्टेबाजों के अलावा कम ही लोग निवेश करना पसंद करते हैं।

10. ब्लू चिप स्टॉक – ऐसी कंपनियों के स्टॉक जिनका प्रदर्शन बेहतरीन रहा है और जो निवेशकों को डिविडेंड भी देती रही हैं।

इनके फंडामेंटल मजबूत होते हैं और किसी तरह की आर्थिक मंदी या शेयर मार्केट के डाउन होने पर भी इन पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता इसलिए निवेशक इन पर भरोसा जताते हैं।

11. डिबेंचर – दोस्तों आप अक्सर डिबेंचर शब्द भी सुनते होंगे और आपके मन में आता होगा कि शेयर और डिबेंचर में क्या अंतर है ?

आपने शेयर तो समझ लिया कि जब कंपनी को अपने विस्तार के लिए पैसे की जरूरत होती है तो शेयर जारी करके लोगों से आग्रह करती है कि उस कंपनी में इन्वेस्ट करें। यानि एक तरह से वो आपको शेयरों के अनुपात की पार्टनरशिप ऑफर करती है।

लेकिन जब कंपनी को लोन या उधार की जरूरत होती है तो वहां डिबेंचर जारी किए जाते हैं। कहीं-कहीं इनको बांड या नोट भी कह दिया जाता है।

ये कंपनी के ऊपर आपकी लेनदारी को बताता है और इसके लिए आपको एक निश्चित ब्याज दिया जाता है।

शेयर होल्डर्स के पास वोटिंग राइट होता है पर डिबेंचर होल्डर्स को वोटिंग राइट नहीं होता। डिबेंचर को शेयर में बदला जा सकता है। लेकिन
ये इस बात पर डिपेंड करता है कि वो कन्वर्टिबल है या नहीं।

जब भी सिक्योरिटी की बात आती है तो डिबेंचर होल्डर ज्यादा अच्छी कंडीशन में रहते हैं। क्योंकि कंपनी सबसे पहले अपना उधार चुकाती है और इसके बाद ही शेयर होल्डर्स को डिविडेंड या कोई अन्य भुगतान किए जाते हैं।

यही वजह है कि कंपनी को फायदा न होने पर भी डिबेंचर का ब्याज तो मिलता है पर डिविडेंड के बारे में सिर्फ लाभ होने पर ही सोचा जाता है।

मान लीजिए कोई कंपनी दिवालिया हो गई तो पैसे पर सबसे पहले डिबेंचर होल्डर का दावा रहता है। कंपनी की क्रेडिट रेटिंग यहीं काम आती है।

AAA रेटिंग वाली कंपनी को सबसे सुरक्षित माना जाता है।

Stock Share Market Kya hai Puri Jankari Hindi
Stock Share Market Kya hai Puri Jankari Hindi

अब पढ़िए शेयर मार्केट की terminology alphabatic order में

1. Absolute Return एक निश्चित समय में निवेश पर मिलने वाला रिटर्न।

मान लीजिए आप 5,000 रुपए का निवेश करते हैं। पांच साल बाद वो बढ़कर 8,000 रुपए हो जाता है तो आपका 5 साल का absolute return 60% होगा।

2. Allotment– जब कोई कंपनी मार्केट में अपना IPO ( Initial public offering ) लाती है तो उसे खरीदने के लिए निवेशकों को आवेदन करना होता है। इस आवेदन के आधार पर उनको IPO दिए जाते हैं।

इस process को allotment कहा जाता है।

3. Annual Report– Annual Report का मतलब किसी भी कंपनी की वार्षिक परफार्मेंस का लेखा जोखा।

इसमें उसका फायदा, नुकसान, बैलेंस शीट जैसी पूरी वित्तीय जानकारी, साल भर हुई एक्टिविटीज और फ्यूचर प्लान का उल्लेख रहता है।

4. AMO– स्टॉक मार्केट की टाइमिंग 9:15 से 3:30 बजे तक रहती है। इसे live session कहा जाता है।

लेकिन हर व्यक्ति के लिए ये संभव नहीं है कि इसी वक्त मार्केट को ट्रैक करता रहे और लेनदेन करे। इसलिए AMO यानि after market order की सुविधा दी जाती है।

इसमें आप अगले दिन के लिए एडवांस में order place कर सकते हैं। मार्केट लाइव ओपन होने पर ये ऑर्डर एक्जीक्यूट हो जाता है। हालांकि इस सुविधा के भी कुछ terms and conditions हैं  और जिन प्रोडक्ट्स के लिए AMO होता है उनकी टाइमिंग अलग-अलग होती है।

जैसे कि शेयर के लिए NSE की टाइमिंग 3:45 PM से 8:57 AM और BSE की टाइमिंग 3:45 PM से 8:59 AM होती है।

5. Arbitrage – एक शेयर मार्केट से कम कीमत पर शेयर खरीदकर दूसरे शेयर मार्केट में ज्यादा कीमत पर बेचना।

मान लीजिए आपने BSE से कोई शेयर 100 रुपए में खरीदा और NSE में 105 रुपए में बेच दिया तो इसे arbitrage कहा जाता है।

आज की तारीख में दोनों जगह शेयर की कीमतों में मामूली अंतर होता है क्योंकि सारा काम ऑनलाइन हो चुका है। लेकिन पहले इस तरह बड़ा मुनाफा कमा लिया जाता था। हालांकि आज भी अगर बड़ी संख्या में शेयर बेचे जाएं तो मुनाफे का अनुपात भी बढ़ जाता है।

6. अल्फा– ये किसी स्टॉक का मार्केट के रिटर्न और किसी स्टॉक के रिटर्न का अनुपात बताता है। यानि किसी समय पर मार्केट की परफार्मेंस कैसी थी और उसी समय एक खास कंपनी या शेयर की परफार्मेंस कैसी थी।

ये अंकों में बताया जाता है और पॉजिटिव या नेगेटिव हो सकता है।

अल्फा 5% का मतलब होगा कि उस शेयर ने मार्केट से 5% बेहतर परफार्म किया और ( -5%)  स्कोर होने का मतलब होगा कि उस शेयर ने मार्केट से 5% कम परफार्म किया।

7. बीटा – जिस तरह अल्फा रिटर्न के लिए देखा जाता है, बीटा से आपको रिस्क के पैटर्न की जानकारी मिलती है।

बीटा को आप किसी शेयर की volatility को नापने का पैमाना भी कह सकते हैं। बीटा स्कोर जितना ज्यादा होगा volatility उतनी ज्यादा होगी।

8. Bid and Ask price – Bid price वो अधिकतम कीमत है जिस पर कोई निवेशक किसी शेयर को खरीदने के लिए तैयार होता है।

Ask price उस न्यूनतम कीमत को कहते हैं जहां कोई seller अपने शेयर बेचने को तैयार होता है।

9. Bid Ask spread – इन दोनों के बीच का अंतर। इससे ये समझ आ जाता है कि शेयर की liquidity क्या है। अगर ये अंतर ज्यादा है तो इसका मतलब कि शेयर की liquidity कम है और इसमें बहुत सोच समझकर निवेश करने की जरूरत है।

10. ब्रोकर– शेयर खरीदने और बेचने वालों के बीच एक मिडिलमैन।

11. Bull and Beer – ये शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव और किसी खास शेयर की लोकप्रियता को बताने के symbol हैं।

बुल को तेजी का प्रतीक और बीयर को गिरावट का प्रतीक माना गया है।

जब आप सुनते हैं कि स्टॉक मार्केट या किसी कंपनी के शेयर बुलिश हैं तो इसका मतलब स्टॉक मार्केट ऊपर जा रहा है या लोग उस कंपनी के शेयर खरीदने में इंट्रेस्ट दिखा रहे हैं।

बीयरिश होना स्टॉक मार्केट के नुकसान या गिरावट को दिखाता है। किसी कंपनी के शेयर बीयरिश होने का मतलब है लोग उस पर भरोसा नहीं जता रहे और अपना निवेश वापस लेना चाहते हैं। ये निवेशकों के रवैये को भी बताता है।

जो व्यक्ति मार्केट ऊपर जाने की उम्मीद करता है उसे बुलिश और जो मंदी का अनुमान लगाता है उसे बीयरिश कहते हैं।

11. Best buy– ऐसे शेयर जिनका परफार्मेंस अच्छा होता है या वो उस वक्त निवेश करने योग्य सही कीमत पर मिल रहे होते हैं और आगे चलकर उनकी कीमत बढ़ने की अच्छी संभावना रहती है।

जब कहा जाता है कि ये शेयर best buy है तो इसका मतलब है कि आपको इसे खरीदने के बारे में जरूर सोचना चाहिए।

12. बबल फूटना– किसी शेयर के भाव का तेजी से बढ़कर एकदम गिर जाना।

13. बिकवाली का दबाव– जब खरीद से ज्यादा शेयर बिकने लगें। इस वजह से बाजार मंदी की तरफ जाता है।

14. Buy back– जब कंपनी शेयर होल्डर्स से अपने शेयर्स खरीदती है तो उसे buy back कहा जाता है।

आप सोचेंगे कि कंपनी ऐसा क्यों करती है? तो इससे सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि इस तरह प्रमोटर होल्डिंग बढ़ जाती है और टेक ओवर का रिस्क कम हो जाता है।

दूसरा फायदा ये है कि इससे EPS और PE ratio बढ़ाने में मदद मिलती है। अगर कंपनी को लगती है कि उनका शेयर अंडरवैल्यू
पर है तब इसकी कीमत बढ़ाने के लिए भी ऐसा किया जाता है।

15. CAGR– Compound Annual Growth Rate ये आपके इन्वेस्टमेंट पर हर साल होने वाली ग्रोथ को बताता है। कंपनियां भी अपने सेल्स, नेट प्रॉफिट, रेवेन्यू जैसे पैरामीटर को CAGR पर देखती हैं।

16. Closing time– वह समय जब शेयर मार्केट की ट्रेडिंग या इन्वेस्टमेंट के कामकाज बंद हो जाते हैं। हमारे देश में यह दोपहर 3:30 बजे बंद हो जाता है। इस वक्त उस दिन का क्लोजिंग प्राइस डिसाइड किया जाता है।

17. Closing price – शेयर बाजार बंद होने से आधे घंटे पहले कोई शेयर जिस-जिस दाम पर बिकता है उसके एवरेज को closing price कहते हैं।

मान लीजिए 3 बजे से 3:30 बजे तक शेयर किसी कंपनी के 4 शेयर 25, 30, 35 और 20 रुपए पर बिके तो उनका एवरेज प्राइस होगा ( 25+30+35+20/4 ) यानि 27.5 रुपए।

18. Correction – वैसे तो मार्केट में उतार-चढ़ाव लगा रहता है पर कभी-कभार ऐसा होता है कि लगातार तेजी ही बनी रहती है। ऐसे में जब मार्केट थोड़ा नीचे जाकर एक सामान्य स्थिति की तरफ जाने लगता है तो उसे correction कहा जाता है।

लगातार मंदी से गुजरते हुए मार्केट में सुधार आने पर रिकवरी शब्द इस्तेमाल किया जाता है। ये दोनों ही स्थितियां अच्छी मानी जाती हैं।

19. Crash होना– मार्केट के इंडेक्स का एक ही दिन में 500-600 या उससे अंक गिर जाना मार्किट क्रेश होना कहलाता है ।

ये बिकवाली के दबाव, किसी समकालीन राजनीतिक या विश्व घटनाक्रम या किसी घोटाले के सामने आने की वजह से हो सकता है।

मार्केट के अलावा कोई एक खास सेक्टर भी क्रैश हो सकता है जहां बाकी स्टॉक अप्रभावित रह सकते हैं।

20. Credit rating agency– ये एजेंसियां कंपनी की credit worthyness बताती हैं। यानि अगर कंपनी कोई लोन लेती है तो उसे सही समय पर चुकाती है या नहीं।

इससे निवेशकों को ये तय करने में आसानी होती है कि इस इस कंपनी के डिबेंचर या शेयर में पैसा लगाना है या नहीं और डिबेंचर खरीदने पर उनके धन वापसी की कितनी संभावना है।

ऐसी कुछ एजेंसियां हैं CRISIL और ICRA. कार्पोरेट एक्शन- कंपनी की तरफ से उसकी मार्केट एक्टिविटी या शेयर होल्डर के लिए लिया जाने वाला फैसला। जैसे बोनस शेयर या डिविडेंड की घोषणा, मर्जर, split.

21. Contract note– ब्रोकर के माध्यम से आपके अकाउंट में हो रही ट्रेडिंग का दस्तावेज। इसमें ब्रोकरेज, टैक्स, ट्रेडिंग का समय, कीमत जैसी हर डीटेल रहती है।

ब्रोकर के साथ कोई विवाद होने पर या ब्रोकर की तरफ से धोखाधड़ी किए जाने पर consent order ही एक पक्का सबूत माना जाता है। इसके बिना विवाद की स्थिति में निवेशक का दावा कमजोर पड़ जाता है।

22. Cornering– जब कोई व्यक्ति या कोई निवेशक समूह किसी एक खास कंपनी के शेयर लगातार खरीदने लगे।

ऐसा करने के पीछे उस कंपनी को टेकओवर करना, वोटिंग राइट बढ़ाना जैसे कारण हो सकते हैं।

23. Consent order– ये शेयर मार्केट में हुए वाद-विवाद का निपटारा करने का एक व्यावहारिक और सरल तरीका है। इसमें दोषी पाए गए पक्ष को सेबी की तरफ से आर्थिक दंड दे दिया जाता है।

अदालती कार्यवाही में बहुत वक्त लगता है। जबकि इस तरीके से समय, धन और श्रम की काफी बचत हो जाती है। हालांकि हर तरह के विवाद इस तरीके से नहीं निपटाए जा सकते। जो relatively गंभीर अपराध होते हैं उनके लिए ये तरीका नहीं है।

24. Circuit filter– किसी शेयर के भाव बहुत ज्यादा fluctuate न हो पाएं इसका उपाय।

कुछ शरारती तत्व शेयर के दामों में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव ले आते थे। इससे बचने के लिए सर्किट फिल्टर का प्रावधान लागू किया गया।

मान लीजिए किसी कंपनी का सर्किट फिल्टर आठ है तो एक दिन में उस कंपनी के शेयर की कीमत आठ प्रतिशत से ज्यादा घट या बढ़ नहीं सकती।

जिन कंपनियों के शेयर ज्यादा fluctuate होते हैं उनका सर्किट फिल्टर कम होता है। कम flucuate होने वाले शेयरों का सर्किट फिल्टर ज्यादा होता है। इस सिस्टम की वजह से निवेशकों को बहुत राहत मिली है।

25. Circular trading– जिस शेयर की जितनी डिमांड होगी उसकी कीमत उतनी बढ़ेगी। इसलिए कुछ लोग ग्रुप बनाकर आपस में ही शेयर की ट्रेडिंग करने लगते हैं जिससे मार्केट में उस शेयर में तेजी आ जाए।

स्टॉक एक्सचेंज की तरफ से समय-समय पर इसकी निगरानी की जाती है और ऐसा कर रहे लोगों पर कार्यवाही होती है।

26. डीमैट अकाउंट– जिस तरह आप पैसे संभालने के लिए बैंक या पोस्ट ऑफिस के अकाउंट की सुविधा लेते हैं ठीक उसी तरह स्टॉक संभालने के लिए डीमैट अकाउंट (Demat) खोला जाता है।

इसमें आपकी सारी जानकारी जैसे नाम, PAN नंबर, फोन नंबर, मेल आई डी और आपके पास कौन सी कंपनी के कितने शेयर हैं इन सबकी जानकारी होती है।

ये अकाउंट आप किसी रजिस्टर्ड एजेंसी की मदद से खोल सकते हैं जिनको depository participant (DP) कहा जाता है।

पहले स्टॉक मार्केट का काम पेपर्स पर होता था और इसमें बहुत समय लग जाता था और शेयर होल्डर के पास पेपर के फार्म में शेयर सर्टिफिकेट रहते थे। लेकिन इनके खराब होने या गुमने का डर रहता था।

पर अब सारा काम ऑनलाइन हो गया है। इसे Dematerialize करना कहा गया। Demat इसी का short cut है।

27. Debt to Equity Ratio– इससे हमको ये पता चलता है कि कंपनी ने शेयर होल्डर इक्विटी के एक रुपए पर कितना लोन लिया है।

इसे निकालने के लिए total liabilities को total shareholders equity से भाग देते हैं। आपको ऐसी कंपनियों में निवेश करना चाहिए जिनका ये ratio 1 से कम हो।

क्योंकि इसके ज्यादा होने का मतलब होता है कि कंपनी अपने बिजनेस के लिए अपनी कमाई से ज्यादा कर्जे (debt) पर निर्भर है।

28. Depository– जहां आपका डी मैट अकाउंट खुलता है।

ये आपके हर इन्वेस्टमेंट को इलेक्ट्रॉनिक फार्म में सुरक्षित रखती है। हमारे देश में NSDL और CDSL नाम की depositiries काम करती हैं।

29. Depoaitory participant (DP) – ये डी मैट अकाउंट होल्डर और depository के बीच की कड़ी हैं। इनमें ज्यादातर बैंक और कुछ रजिस्टर्ड एजेंट शामिल हैं।

दरअसल आप सीधे NSDL या CDSL में अकाउंट नहीं खोल सकते। आप अपने DP के साथ अकाउंट खोलते हैं और फिर ये अकाउंट depository से कनेक्ट होता है।

30. Dividend– इसे हिंदी में लाभांश कहा जाता है।

डिविडेंड मिलने का मतलब होता है कंपनी ने अपने लाभ में से आपके शेयरों के अनुपात में आपको हिस्सा दिया। ये कैश भी हो सकता है और बोनस शेयर भी।

हालांकि ये जरूरी नहीं कि हर लाभ कमाने वाली कंपनी डिविडेंड देती ही है। क्योंकि कंपनी इस पैसे को अपनी ग्रोथ के लिए भी इस्तेमाल कर सकती है।

31. Dividend yield– इसे आप इस तरह समझ सकते हैं कि अगर आपको डिविडेंड मिल रहा है तो वो शेयर की वर्तमान कीमत का कितना प्रतिशत है।

यानि अगर आज शेयर की कीमत 200 रुपए है और आपको हर शेयर पर 5 रुपए का डिविडेंड मिला तो आपकी dividend yeild 2.5% होगी।

यदि शेयर प्राइस बढ़ता है तो डिविडेंड यील्ड कम हो जाती है। ज्यादा डिविडेंड यील्ड वाली कंपनी में निवेश का फैसला सुनने में तो बड़ा अच्छा तो लगता है पर जैसा कि आप ऊपर पढ़ चुके हैं डिविडेंड मिलना हमेशा जरूरी नहीं होता।

32. DII- Domestic Institutional Investor – अपने ही देश की निवेशक संस्थाओं जैसे इंश्योरेंस कंपनियां, बैंक और फाइनेंस कंपनियों का निवेश DII कहलाता है।

आप आगे FII पढ़ेंगे जिससे ये आपको और अच्छी तरह समझ आ जाएगा।

33. Diversification– इसका मतलब है अपने निवेश में विविधता यानि variety लाना।

एक समझदार निवेशक कभी एक ही कंपनी या एक ही सेक्टर में निवेश नहीं करता। ताकि अगर कभी किसी खास सेक्टर में मंदी आ भी जाए तो दूसरे सेक्टर से कमाई का स्कोप रहे।

इतना ही नहीं निवेशकों को अलग-अलग asset बनाने चाहिए। जैसे शेयर, डिबेंचर, कीमती धातु, प्रॉपर्टी, सरकारी योजनाओं जैसी अलग जगहों पर पैसा लगाना चाहिए।

34. Disgorgement- अगर कोई व्यक्ति शेयर मार्केट में घोटाला करता है तो सेबी मामले की जांच करती हैऔर दोषी पाए जाने पर उस पैसे की वसूली के लिए disgorgement order जारी किया जाता है।

35. .डीलीस्टिंग– जब कोई कंपनी अपने शेयर डीलिस्ट करा देती है तो इसका मतलब होता है कि अब उन शेयरों की खरीदी या बिक्री नहीं की जा सकती है। ये दो कंडीशन में हो सकता है।

एक तो कंपनी खुद ऐसा करे। इस समय कंपनी अपने शेयर होल्डर्स से सारे शेयर खरीद कर अपनी डीलिस्टिंग कराती है। ऐसे में निवेशकों को नुकसान नहीं होता है।

लेकिन कभी-कभी कंपनी सेबी  के नियमों का पालन न करे तो एक पैनल्टी के तौर पर पहले उसके शेयर सस्पेंड कर दिए जाते हैं। इसके बाद भी कंपनी न माने तो फाइनली उसके शेयर डीलिस्ट कर दिए जाते हैं। इस तरह से निवेशकों को नुकसान उठाना पड़ता है।

36. EPS (Earning Per Share)– इसे हिंदी में प्रति शेयर आय कहा जाता है।

37.  ये निवेश का एक महत्वपूर्ण criteria होता है। इसे नीचे दिए गए तरीके से बड़ी आसानी से कैलकुलेट कर सकते हैं।

EPS = (Net Profit/ Total Number of Shares)

यानि अगर कंपनी का एक साल में नेट प्रॉफिट 20 लाख रुपए है और उसके कुल शेयर दस हजार हैं तो EPS होगा

(2,000,000/10,000 = 200 रुपए।)

हो सकता है आपके मन में सवाल आए कि कंपनियां तो तिमाही और छमाहीके नतीजे भी बताती हैं। ऐसे में वार्षिक लाभ कैसे पता चले? तो ऐसे में EPS को तिमाही के लिए चार गुना और छिमाही के लिए दो गुना कर लीजिए।

यानि ऊपर के उदाहरण में तिमाही का प्रॉफिट 20 लाख हुआ तो EPS होगा 800 और छिमाही का प्राॅफिट 20 लाख हुआ तो EPS होगा 400 रुपए।

लेकिन तिमाही या छमाही के आधार पर गणना करते हुए ये ध्यान रखना जरूरी है कि कंपनी की ऑर्डर बुक कैसी है, मैनेजमेंट कैसा है और भविष्य को लेकर उनकी क्या योजनाएं हैं। साथ ही उस सेक्टर की बाकी कंपनियां बाजार में कैसे परफार्म कर रही हैं।

क्योंकि ये भी हो सकता है कि आने वाले समय के लिए कंपनी के पास कोई काम ही न हो या वो सेक्टर किसी खास अवधि के लिए ही
अच्छा परफार्म करता हो।

37. Exposure– इसका मतलब है risk लेना। जब आप किसी कंपनी में निवेश करते हैं तो कहा जाता है आपने उस कंपनी या सेक्टर में एक्सपोजर लिया।

38. Financial statement– ये तीन तरह के होते हैं।

  1. Balance sheet,
  2. Income statement और
  3. Cash

39. Flow statement. निवेश से पहले इनकी स्टडी जरूरी है। इससे कंपनी की फाइनेंशियल मजबूती और पोजीशन समझ आ जाती है।

Annual report जहां कंपनी की overall performance, board meetings, other activities, schedules जैसी हर चीज बताती है लेकिन फाइनेंशियल स्टेटमेंट का फोकस कंपनी के finances को बताने पर होता है।

40. Fundamental– इसमें किसी कंपनी से जुड़ी ऐसी जानकारी आती है जिसको आधार बनाकर निवेश का फैसला लिया जाता है। जैसे मार्केट कैप, सेल्स, लाभ, रिटर्न, PE ratio, revenue.

अगर हम कहें कि इस कंपनी के फंडामेंटल अच्छे हैं तो इसका मतलब है कि यहां निवेश करना अच्छा रहेगा।

मार्केट के लिए भी ये शब्द इस्तेमाल किया जाता है। अच्छे फंडामेंटल का मतलब होता है ये समय मार्केट में पैसा लगाने के लिए अच्छा है।

41.Face Value – इसे नॉमिनल वेल्यू या PAR value भी कहा जाता है। ये किसी शेयर के ऊपर दर्ज कीमत होती है।

यानि physical (जो पहले चलते थे) या electronic form में शेयर के ऊपर लिखा गया price. शेयर की कीमतें बाजार में रोज बदलती रहती हैं पर फेस वेल्यू हमेशा नही बदलती है।

सामन्यता किसी भी स्टॉक की फेस वैल्यू 10 की है और अगर किसी निवेशक के पास उस कंपनी के 100 शेयर है और जब कंपनी अपनी फेस वैल्यू 10 से 5 करती है तो निवेशक के शेयर की संख्या बढ़ कर 200 हो जाती है  |

उसी तरह अगर फेस वैल्यू 10 से 2 होती है तो निवेशक के शेयर्स की संख्या भी 5 गुना हो जाएगी |

एक और बात ध्यान रहे की फेस वैल्यू के जितने हिस्से होंगे उतने ही हिस्से शेयर प्राइस के भी होंगे , माना कि एक शेयर का प्राइस 100 रूपये है और फेस वैल्यू को 10 से घटा कर 2 कर दिया है , तो शेयर प्राइस के भी 5 हिस्से हो जाएँगे यानी कि जो शेयर प्राइस पहले 100 रूपये था अब 20 रूपये हो जाएगा |

फेस वैल्यू के कम होने से से निवेशक को कोई फर्क नही पड़ता क्यूंकि उसके सह्रेस की संझ्या बढ़ जाती है लेकिन आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यूँ किया जाता है ?

तो मैं आपको बता दूँ कि जब किसी शेयर की प्राइस बहुत ज्यादा महंगी हो जाती है और उस शेयर कि खरीद कम होने लगती तो शेयर के टुकड़े कर दिए जाते है और उसका प्राइस कम होने से निवेशक उसे खरीद बिक्री ज्यादा करने लगते है |}

अब अगर कोई शेयर अपने फेस वेल्यू पर ही ट्रेड हो रहा हो तो उसे At Par price कहा जाता है। इसी तरह फेस वैल्यू से कम कीमत पर बिक रहे शेयर को At Discount price कहा जाएगा।

At Premium का मतलब है शेयर का अपने फेस वेल्यू से ज्यादा कीमत पर बिकना।

फेस वेल्यू का महत्व

दोस्तों इस टॉपिक के लिए अलग से एक आर्टिकल लिखने की जरूरत होगी। पर एक नए निवेशक को जो समझना जरूरी है वो हम यहां बता देते हैं।

  • अगर कोई कंपनी दिवालिया यानि bankrupt हो जाती है तो निवेशक को फेस वैल्यू के हिसाब से ही अपने स्टॉक का भुगतान मिलता है।
  • कंपनी डिविडेंड और बोनस शेयर की गणना फेस वेल्यू के आधार पर की जाती है।

42. FII– इसका फुल फार्म होता है Foreign Institutional Investor. सरल भाषा में इसका मतलब होता है शेयर मार्केट के विदेशी निवेशक।

ये लोग बहुत बड़ी मात्रा में पूंजी लगाते हैं और खरीदी-बिक्री करते हैं। इस वजह से इनके मूवमेंट का मार्केट पर बहुत असर पड़ता है। जब ये बड़ी संख्या में निवेश करते हैं तो मार्केट में तेजी आती है। इसके विपरीत जब ये अपना निवेश वापस लेने लगते हैं तो मंदी आने लगती है।

आपको याद होगा कि जब रिसेशन हुआ था तब फॉरेन इन्वेस्टर्स ने मार्केट से अपना पैसा वापस ले लिया था और शेयर बाजार डांवाडोल होने लगा था। इन निवेशकों को पहले सेबी और आरबीआई में रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है।

43. Guidence– किसी कंपनी की तरफ से उसकी फ्यूचर परफार्मेंस का अनुमान जाहिर करना। कंपनियां तीन माह या छह माह या साल भर के लिए अपने टार्गेट और बिजनेस परफार्मेंस लेकर चलती ही हैं, रिजल्ट चाहे जो भी हों। इसे ही guidence कहा जाता है।

44. गाइड लाइन– सेबी की तरफ से मार्केट के लिए बनाए गए नियम।

45. इनसाइडर ट्रेडिंग– शेयर की कीमतों में कंपनी की परफार्मेंस की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। जाहिर है कि पब्लिक से पहले कंपनी के अंदर काम कर रहे लोगों को इसकी जानकारी हो जाती है खास तौर पर ऊंचे पद पर बैठे हुए लोगों को।

ऐसे में अगर शेयर की कीमत बढ़नी हो तो ये लोग ज्यादा से ज्यादा शेयर खरीद लेते हैं। वहीं अगर खराब परफार्मेंस की वजह से कीमत घटने के आसार हों तो ये लोग अपने शेयर बेचने लगते हैं। इन दोनों ही कंडीशन में एक निवेशक के साथ धोखा हो जाता है।

इस तरह की एक्टिविटी illegal मानी जाती है और पकड़ में आने पर सजा का प्रावधान भी होता है।

46. Intraday trading– शेयर बाजार की टाइमिंग 9:15 से 3:30 तक होती है। अगर निवेशक इस बीच कोई शेयर खरीदकर उनको बेच भी देता है तो उसे intraday trading कहा जाता है।

लेकिन अगले दिन या उसके बाद कभी भी बेचने पर इसे delivery कहा जाता है।
47. Inventory Turnover Ratio Inventory किसी कंपनी के उन सभी प्रोडक्ट्स को मिलाकर कहते हैं जो वह फ्यूचर में सेल करने वाली होती है।

इसमें कच्चे माल से लेकर फिनिश्ड प्रोडक्ट तक सब शामिल हैं। इस रेशियो का मतलब होता है कि किसी निश्चित समय में कंपनी अपनी inventory कितनी बार सेल करती है। इस वेल्यू से हमको ये समझने में आसानी होती है कि कंपनी के प्रोडक्ट्स कितनी जल्दी या कितनी देर से बिकते हैं।

हमको हमेशा एक ही सेक्टर की कंपनियों के Inventory Turnover Ratio compare करने चाहिए। कंपनियां इसको ratio में न बताकर दिन के हिसाब से भी बता सकती हैं। यानि कितने दिन में एक inventory पूरी सेल हो गई। इसकी जानकारी annual report से मिल जाती है।

48. IPO-  ये नाम अक्सर सुनने में आता है कि कोई कंपनी आईपीओ ला रही है।

इसका फुल फार्म है Initial Public Offering. जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है जब कोई कंपनी पहली बार पब्लिक के लिए अपने शेयर, मार्केट में उतारती है तो उसे IPO कहा जाता है।

49. लिक्विडिटी- जब बाजार में डिमांड और सप्लाई सही अनुपात में बनी रहे। यदि शेयर की डिमांड ज्यादा हो और सप्लाई कम तो इसे लिक्विडिटी कम होना कहते हैं। अगर कंडीशन इससे उलट हो तो लिक्विडिटी बढ़ना कहा जाता है।

50. LTP – इसका full form है last trading price. वह कीमत जिस पर किसी शेयर की पिछली ट्रेडिंग हुई थी।

ये बहुत dynamic होता है और पल-पल में बदलता रहता है। आपने closing time में एक उदाहरण पढ़ा जहां शेयर का closing price था 27.5 रुपए पर last trading price होगा 20 रुपए।

51. मेगा इशु– किसी कंपनी का बहुत बड़ी संख्या में शेयर जारी करना।

52. मार्केट चढ़ना और लुढ़कना- मार्केट में तेजी या मंदी होना।

53. Margin Trading– इसे ब्रोकर की तरफ से निवेशक को दिया जाने वाला उधार कह सकते हैं। ऐसे में आप जो भी शेयर खरीदते हैं वह ब्रोकर के पास गिरवी की तरह रखा रहता है।

54. मंदड़िया– ऐसे शरारती तत्व जो तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर मार्केट को मंदी की ले जाने की कोशिश करते हैं। ताकि कम कीमत पर शेयर खरीदे जा सकें। बीयरिश को भी हिंदी में मंदड़िया कहा जाता है।

55. Market Participants- ऐसे सभी लोग या संस्थाएं जो मार्केट में निवेश करते हैं। इनमें सभी घरेलू निवेशक, घरेलू संस्थाएं, asset management companies, NRI, FII शामिल हैं।

56. Merchant Banker– जब कोई कंपनी IPO लाती है तो प्राइमरी मार्केट में उसकी प्रोसेसिंग और डॉक्युमेंटेशन का काम merchant bankers ही करते हैं।

57. Opening price– मार्केट खुलने के वक्त किसी शेयर की कीमत।

जरूरी नहीं कि ये closing price के बराबर ही होगी। इसके पीछे बहुत से factors हो सकते हैं। मार्केट सुबह 9:15 मिनट पर ओपन होता  है।

लेकिन 9 बजे से लेकर 9:08 मिनट तक ऑर्डर रिसीव किए जाते हैं और अगले 7 मिनटों तक डिमांड और सप्लाई के आधार पर ओपनिंग प्राइस तय हो जाता है।

इसके अलावा closing time के बाद AMO, कंपनियों या देश-विदेश में आई किसी अच्छी-बुरी खबर का भी इस प्राइस पर असर पड़ता है।

58. Order Book- सरल तरीके से समझें तो इसका मतलब होगा किसी कंपनी के पास कितना काम है।

एक कंपनी है जो एक महीने में दस हजार साबुन बनाती है। लेकिन इसके लिए इतने साबुनों का आर्डर होना भी तो जरूरी है। ताकि कंपनी अपनी क्षमता के अनुसार प्रोडक्शन और सेल करे और मुनाफा कमाए।

जिन कंपनियों की ऑर्डर बुक फुल होती है उनकी फ्यूचर परफार्मेंस की लेकर निवेशकों में तसल्ली रहती है।

59. Outstanding Shares– कंपनी के वो सारे शेयर जो इन्वेस्टर्स के पास हैं।

60. OHLC– ये open, high, low and close को मिलाकर बना है। स्टॉक मार्केट के ओपन होने से लेकर क्लोज होने के बीच किसी शेयर की परफार्मेंस बताने के लिए ये क्राइटेरिया इस्तेमाल होता है।

यानि स्टॉक मार्केट खुलने पर शेयर कितने का था, दिन भर में अधिकतम और न्यूनतम कीमत क्या रही और मार्केट बंद होते समय यह कितनी कीमत पर ट्रेड हुआ।

Share market kya hota hai -Share Market ki puri jankari
Share market kya hota hai -Share Market ki puri jankari

61. प्लेज शेयर– किसी कंपनी को अपने काम काज के लिए, लोन चुकाने के लिए, नए asset बनाने जैसी चीजों के लिए पैसों की जरूरत हो तो वो बैंक या किसी फाइनेंशियल इंस्टीट्यूट के पास अपने प्रमोटर शेयर गिरवी रख कर पैसा ले सकती है। इसे promotor pledging भी कहा जाता है।

प्रमोटर  प्लेजिंग को अच्छा नहीं माना जाता है। क्योंकि इसका मतलब होता है कि कंपनी अपने बिजनेस से अपने सारे खर्चे पूरे नहीं कर पा रही है। जैसे कोई व्यक्ति काम करके पैसे कमाता है पर उधार लेने की नौबत तब आती है जब उसकी आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया हो।

इसलिए निवेशकों को कंपनी के प्लेज शेयर या प्रमोटर प्लेजिंग के बारे में जरूर पता करना चाहिए। जितने ज्यादा परसेंट शेयर प्लेज होंगे निवेश करना उतने जोखिम का काम होगा।

शेयर मार्केट की हिस्ट्री में ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जब कंपनियों ने प्रमोटर शेयर गिरवी रख कर लोन तो ले लिया पर इस पैसे का इस्तेमाल कहीं और कर दिया। सत्यम घोटाला भी ऐसी ही एक घटना है।

जिस तरह real estate sector में RERA लाया गया, SEBI ने भी ये तय कर दिया है कि इस लोन का दुरुपयोग न हो और कंपनियां समय-समय पर प्रमोटर होल्डिंग की जानकारी सार्वजनिक करती रहें। अगर निवेशक चाहें तो वो भी अपने शेयर गिरवी रख सकते हैं।

62. PE ratio (Price to Earning Ratio) – किसी शेयर की कीमत और इससे होने वाली आय के अनुपात को PE ratio कहा जाता है।

PE ratio ये समझने में मदद करता है कि शेयर की कीमत बढ़ने का कितना चांस है। ये रेशियो जितना ज्यादा होता है उस शेयर से होने वाले फायदे की संभावना उतनी बढ़ जाती है।

इसलिए ये क्राइटेरिया निवेशक को जानना बहुत जरूरी है। लेकिन कई बार शेयर की कीमत में कृत्रिम उछाल आ जाता है और PE ratio बढ़ जाता है। इसलिए अच्छी तरह से स्टडी करना जरूरी है। निवेश करने वाले शेयर के साथ उस सेक्टर के PE ratio को देखना भी जरूरी होता है।

PE ratio निकालने के लिए शेयर की एवरेज वेल्यू को EPS से डिवाइड किया जाता है।

63. प्रॉफिट बुकिंग- किसी शेयर को कम कीमत पर खरीदकर अधिक कीमत पर बेचना। आप कहेंगे कि इसमें समझने जैसा क्या है? हर तरह का निवेश इसी mindset से किया जाता है। लेकिन इस शब्द की theory से ज्यादा practical value है।

हम आपको एक उदाहरण देते हैं। मान लीजिए आपने 50rs में एक शेयर खरीदा। कुछ समय बाद उसका दाम 80rs हो गया। अब आपने उसे बेच दिया। इसके बाद दो कंडीशन हो सकती हैं। या तो उसका रेट और बढ़ जाए या तो कम हो जाए।

अगर रेट कम हो गया तो आपका सौदा प्रॉफिट बुकिंग में आ जाता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सोचता है कि रेट बढ़ रहे हैं और कुछ दिन रूक जाते हैं। पर अब शेयर का रेट 70rs से ज्यादा पर नहीं आ रहा। ऐसे में भले ही 50rs का शेयर 70 में बेचकर आपको फायदा मिले, इसे
profit booking में नहीं गिना जाएगा।

हालांकि price fluctuation का इतना सटीक अंदाजा लगाना मुश्किल है और इसके लिए बहुत expertise की जरूरत पड़ती है।

हम उम्मीद करते हैं कि आप हमारे आर्टिकल नियमित रूप से पढ़ते रहें तो एक दिन जरूर इतने expert बन जाएंगे।

64. पोर्टफोलियो– ये शेयर मार्केट में किए गए आपके हर निवेश का कलेक्शन है। इसे एक फोल्डर कहा जा सकता है। अगर पैसों के मामले में देखें तो आपका सेविंग्स बैंक अकाउंट, फिक्स्ड डिपॉजिट, करंट अकाउंट, लोन, सोना जैसी चीजें आपके पोर्टफोलियो में आती हैं।

शेयर मार्केट के हिसाब से इसमें स्टॉक, बॉन्ड, फ्यूचर ऑप्शन, आईपीओ जैसे निवेश आते हैं।

65. Previous High and Low– किसी शेयर की पिछले दिन की अधिकतम और न्यूनतम कीमत।

66. Primary and Secondary Market प्राइमरी मार्केट का मतलब है कंपनी से डायरेक्टली शेयर खरीदना।

यानि जब कंपनी IPO लाती है तब निवेश करना। लेकिन ऐसी बहुत सी कंपनियां हैं जो सालों पहले अपने IPO ला चुकीं और तब आप निवेश करते ही नहीं थे।

ऐसे में उनके शेयर आप किसी share holder से ही खरीद सकते हैं। तो इनको secondary market कहा जाता है।

67. रिकवरी- मार्केट के लिए इसका वही मतलब होता है जो आम जीवन में होता है यानि सुधार।

जब शेयर मार्केट लगातार गिर रहा हो और फिर धीरे-धीरे ऊपर आने लगे तो इसे रिकवरी होना कहते हैं।

68. रेटिंग– कंपनी की परफार्मेंस के आधार पर उनको दिया जाने वाला लेवल।

69. Revenue – किसी फिक्स टाइम में कंपनी की टोटल सेल। इसे टर्नओवर या सिर्फ सेल भी कहा जाता है।

कंपनी के बिजनेस के नेचर के हिसाब से ये कोई प्रोडक्ट भी हो सकता है और कोई सर्विस भी हो सकती है।

मान लीजिए कंपनी ने एक साल में 1 लाख रुपए की सेल की तो इसे एक साल का रेवेन्यू कहा जाएगा। टोटल सेल को ज्यादातर एक फाइनेंशियल इयर या फिर एक तिमाही (quarter) के हिसाब से मापा और कंपेयर किया जाता है।

लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि कंपनी का रेवेन्यू या सेल बढ़ रहा है तो उसका प्रॉफिट या फंडामेंटल अच्छे ही होंगे। इसलिए कभी भी सिर्फ एक क्राइटेरिया को देखकर पैसा लगाने या निकालने का फैसला न करें।

70. रोलबैक– किसी कंपनी द्वारा अपना कोई निर्णय या घोषणा वापस लेना।

71. Rally– शेयर की कीमतों का एक ही दिशा में जाना यानि सिर्फ घटते या बढ़ते जाना।

72. रीलिस्टिंग– ये शब्द डीलिस्टिंग का उलट होता है। इस कंडीशन में कंपनी के शेयर से ट्रेडिंग की पाबंदी हट जाती है। निवेशकों के लिए ये राहत भरी बात है क्योंकि अब उनके जीरो हो चुके शेयर वापस कीमत ले लेते हैं।

73. ROCE– Return on Capital Employed , ये भी एक बहुत महत्वपूर्ण parameter है जो निवेश करने के लिए जरूर देखा जाना चाहिए। इससे ये पता चलता है कि कंपनी बिजनेस में लगाई गई पूंजी पर कितना लाभ कमा रही है।

इसे निकालने के लिए ये फार्मूला होता है-

ROCE = EBIT/ Capital Employed

(EBIT= Earning before interest and taxes) इसे operating profit भी कहा जाता है। कंपनियों के income statement में इसकी जानकारी होती है। Capital Employed की जानकारी balance sheet में मिल जाती है।

Capital Employed को दो तरीकों से निकाला जा सकता है।

  1. Total Assets- Current Liabilities
  2. Fixed Assets + Working Capital

ज्यादातर option 1 ही लिया जाता है। वैसे अगर ये सब पढ़कर आपका दिमाग चकरा रहा है तो आराम से मुस्कुरा दीजिए। क्योंकि ये
हमने सिर्फ आपकी जानकारी के लिए बताया है। आपको ये सब ढूंढने की जरूरत नहीं है। कंपनियों की annual report में इसकी जानकारी होती है। और आपको ऑनलाइन भी बहुत मदद मिल जाती है।

आपको जो ध्यान में रखना है वो ये कि अगर पिछले कुछ सालों में (5-10 साल) इसकी वेल्यू 15% से ज्यादा रही है तो कंपनी बहुत भरोसेमंद मानी जाती है। इस तरह की कंपनियों में long term investment की प्लानिंग अच्छी रहती है।

74. ROE– Return on Equity – इस parameter से पता चलता है कि कंपनी अपनी shareholders equity पर कितना प्रॉफिट कमाती है।

इसका फार्मूला है

ROE= Net Profit/ Average Shareholders Equity

Net Profit कंपनी के income statement में दिया होता है और shareholders equity के लिए बैलेंस शीट देखी जाती है। इनका average निकालने के लिए एक फाइनेंशियल इयर की शुरुआत और अंत की shareholders equity को देखा जाता है। ये टर्म आपको अगले नंबर पर ही पढ़ने को मिल जाएगा।

ROCE की तरह ROE भी आपको annual report में मिल जाता है। किसी कंपनी का ROE लगातार 15% से ज्यादा हो तो उसको अच्छा माना जाता है। लेकिन अगर कंपनी ने debt लिया हो तो भी ROE बढ़ता है। इसलिए आपको पहले पूरी डीटेल जान लेनी चाहिए।

75. Shareholders equity– इसे net worth, capital या share capital भी कहा जाता है।

ये कंपनी का वह फंड है जो total assets में से debt/liabilities क्लीयर करने के बाद shareholders के लिए बचता है। लगातार फायदे में चल रही कंपनियों की shareholders equity बढ़ती रहती है।

76. Short Selling– आम तौर पर कोई इन्वेस्टमेंट पहले खरीदने और फिर बेचने से शुरु होता है। यानि आप कोई शेयर कम कीमत पर खरीदते हैं फिर उसे ज्यादा कीमत पर बेचते हैं। इस तरह आपको फायदा होता है।

लेकिन Short selling में आप पहले शेयर ज्यादा कीमत पर बेचते हैं फिर उसे कम कीमत पर खरीदकर मुनाफा कमाते हैं। इसके लिए एक उदाहरण देते हैं।

मान लीजिए आपने कोई शेयर 50 रुपए में बेच दिया और फिर उसे 40 रुपए में खरीद लिया। इस तरह अपको दस रुपए प्रति शेयर फायदा मिला।

अब सवाल उठता है कि शेयर होल्ड किए बिना उसे बेच कैसे सकते हैं? इसका जवाब है अपने ब्रोकर से उधार लेकर। लेकिन इसमें आपको एक निश्चित समय के अंदर ब्रोकर को उतने शेयर वापस भी करने होते हैं। इसलिए ये intraday trading या derivative में ही की जाती है।

ये सुनने में तो पैसे कमाने का बड़ा आसान और फास्ट तरीका लगता है इसके लिए मार्केट पर गहरी नजर और पकड़ रखना जरूरी है। जरूरी नहीं कि आपका अंदाजा हर बार सही निकले। इस वजह से आपका नुकसान भी हो सकता है।

77. Stop loss – इसका मतलब होता है निवेशक का अपने घाटे को कम से कम रखना।

मान लीजिए एक शेयर आपने 50 रुपए में खरीदा। अब उसके रेट में गिरावट दर्ज हो रही है। ऐसे में समय रहते ही आप इसे बेच दें तो अपना घाटा कम कर सकते हैं।

इसलिए कोई शेयर खरीदते समय ही निवेशक एक प्राइस फिक्स कर लेते हैं कि इतनी कीमत कम हो जाने पर शेयर को बेच ही देना है। जो लोग कम समय के लिए निवेश करते हैं उनके लिए ये बहुत काम आता है।

78. Stimulus package– किसी सेक्टर को घाटे से उभारने के लिए सरकार की तरफ से उठाए गए कदम।

इसमें टैक्स में छूट या टैक्स फ्री कर देना, लोन देना या पुराने लोन माफ कर देना, ब्याज माफ कर देना जैसे कदम हो सकते हैं। ये सब एक निश्चित समय तक के लिए रहता है जब तक उस सेक्टर में मजबूती न आ जाए।

आप भी अक्सर खबरों में सुनते होंगे कि फलाने सेक्टर को सरकार ने राहत का पैकेज दिया।

79. SAT– Securities Appealet Tribunal – सेबी के निर्णयों से मतभेद होने पर SAT में अपील की जा सकती है। जैसे इन्कम टैक्स के फैसलों के लिए इन्कम टैक्स ट्रिब्यूनल होता है, SAT भी एक similar संस्था है।

80. सिक कंपनी- ऐसी कंपनी जो खराब प्रदर्शन करते हुए ऐसे लेवल पर पंहुच जाए जहां उसका घाटा उसकी नेटवर्थ से बढ़ जाये।

निवेशकों को ऐसी कंपनियों की जानकारी होनी चाहिए  क्योंकि इनके फाइनेंशियल सुधारने की कोशिश की जाती है। अगर इनमें सुधार की गुंजाइश होती है तो निवेश करना समझदारी है।

लेकिन अगर इनके बंद होने के ज्यादा चांस हैं तो इनसे दूर रहना अच्छा है।

81. Sweet Share– ऐसे शेयर जो कंपनी अपने कर्मचारियों को कम दाम पर या फ्री में देती है। इनका लॉकिंग पीरियड 3 साल होता है।

शेयर के प्रकार- शेयर्स को इन तीन भागों में बांटा गया है।

  1. इक्विटी शेयर
  2. प्रेफरेंस शेयर
  3. DVR शेयर

इक्विटी शेयर– इसे कॉमन स्टॉक/शेयर या ऑर्डिनरी शेयर भी कहा जाता है। जब कभी हम शेयर की बात करते हैं तो उसका मतलब इक्विटी शेयर से ही होता है। इन शेयर में निवेश करने वालों को इक्विटी शेयर होल्डर या शेयर होल्डर कहते हैं। इनके पास वोटिंग राइट होते हैं।

प्रेफरेंस शेयर– इनमें कोई वोटिंग राइट नहीं होता। इनको मिलने वाला डिविडेंड फिक्स होता है। लेकिन दिवालिया होने पर जब कभी पैसे चुकाने की बारी आती है तो प्रेफरेंस शेयर होल्डर को पहले पैसे वापस किए जाते हैं।

DVR का फुल फार्म है shares with differential voting rites. इनको आप इक्विटी और प्रेफरेंस के बीच रख सकते हैं। इन शेयर्स पर मिलने वाला डिविडेंड प्रेफरेंस शेयर से ज्यादा होता है।

इनको कुछ प्रतिशत वोटिंग राइट मिलता है। यानि 1 इक्विटी शेयर 1 वोट का अधिकार देता है पर 5 या 10 DVR शेयर एक वोट का अधिकार देते हैं। ये संख्या कंपनी के हिसाब से अलग हो सकती है।

कंपनी को DVR issue करने का सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि इससे टेक ओवर का डर बहुत कम हो जाता है। इन शेयर्स की कीमत इक्विटी शेयर्स से कम होती है। हालांकि हमारे देश में अभी ये इतने पॉपुलर नहीं हुए हैं।

82. Stock split– जैसा कि इसके नाम से जाहिर है, इसमें शेयरों का विभाजन किया जाता है। अब इसका तरीका और वजह समझते हैं।

कुछ शेयर बहुत ज्यादा कीमत पर बिक रहे होते हैं। ऐसे में छोटे निवेशक इनको नहीं खरीद पाते। तब कंपनी स्टॉक स्प्लिट का फैसला लेती है।

इसमें कंपनी एक शेयर को दो, तीन हिस्सों में बांट देती है। अब जहां एक शेयर 90 रुपए का था दो या तीन भाग में बंटकर 45 या 30 रुपए का हो जाता है।

जिन लोगों के पास ऑलरेडी शेयर होते हैं उनके शेयर की संख्या भी स्प्लिट के अनुपात में बदल जाती है। लेकिन इससे निवेश पर तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

जैसे ऊपर ही आपने पढ़ा कि 90 रुपए का एक शेयर 30-30 रुपए के तीन शेयरों में ही बंट गया। यानि पहले आपके पास 90 रुपए कीमत का एक शेयर था अब 30-30 की कीमत के तीन शेयर हो गए।

इसी तरह भले ही कंपनी के शेयरों की संख्या बढ़ जाए पर उसकी मार्केट कैप उतनी ही रहती है। आपको ये समझना सबसे जरूरी है कि स्टॉक स्प्लिट और बोनस शेयर दो अलग चीजें हैं।

जब कभी स्टॉक स्प्लिट होता है मांग में तेजी की वजह से कीमतों में उछाल आ जाता है। ये समय उन निवेशकों के लिए अच्छा रहता है जो शेयर बेचने का इंतजार कर रहे होते हैं।

83. STT– इसका फुल फार्म है Securities Transaction Tax. स्टॉक मार्केट में होने वाली हर ट्रेडिंग पर ये टैक्स लगाया जाता है। ये refundable नहीं होता।

84. Square off- मान लीजिए आपने कुछ शेयर खरीद थे जिनको आप अपने पोर्टफोलियो में नहीं रखना चाहते तो कहा जाता है कि आप उसे square off करना चाहते हैं। Intraday trading पूरी हो जाने पर भी यही कहा जाता है।

85. Trend- ट्रेंड मार्केट के वर्तमान रूझान या कंडीशन को बताता है। जैसे इस समय बिकवाली का ट्रेंड चल रहा है, इस समय तेजी का ट्रेंड चल रहा है।

86. टॉप और बॉटम (हाई और लो)– शेयर या सूचकांक का highest और lowest level.

इसे एक दिन, एक महीने या एक साल किसी भी अवधि के हिसाब से नापा जा सकता है। जैसे एक तारीख को कोई शेयर 20rs का है। 31 तारीख को उसकी कीमत 25rs रही। इस दौरान उसकी न्यूनतम कीमत 13rs और अधिकतम 27rs रही।

अब हम ये कहेंगे कि इस शेयर का एक महीने का टॉप 27 और बॉटम 13 था। इसके लिए हाई और लो शब्दों का इस्तेमाल भी किया जाता है।

निवेश करते हुए ज्यादातर 52 week high and low पर ध्यान दिया जाता है यानि पिछले एक साल के दौरान उस शेयर की अधिकतम
और न्यूनतम कीमत।

87. Trading Account– आपने ऊपर डी मैट अकाउंट समझा। अब ट्रेडिंग अकाउंट को समझते हैं।

अगर आपके पास सिर्फ ट्रेडिंग अकाउंट है तो आप इन्ट्रा डे ट्रेडिंग ही कर सकते हैं क्योंकि आपके पास शेयर संभाल कर रखने के लिए डी मैट अकाउंट है ही नहीं। ये आपके बैंक अकाउंट से लिंक होता है और शेयर के लेन देन के समय पैसे बैंक अकाउंट से आते जाते रहते हैं।

इसे एक दुकान कह सकते हैं और डी मैट अकाउंट को वेयर हाउस। ट्रेडिंग अकाउंट,  डी मैट अकाउंट से भी लिंक होता है।

88. टर्न अराउंड– किसी घाटे में चल रही कंपनी का फायदे में आ जाना। निवेशकों को इस तरह की कंपनियों पर नजर रखनी चाहिए। अगर सही समय पर निवेश कर दिया जाए तो अच्छा मुनाफा हो सकता है।

89. UCC– Unique Client Code – ब्रोकर की तरफ से क्लाइंट को दिया जाने वाला यूनीक नंबर। ब्रोकर को यह नंबर बताकर ट्रेडिंग की
जाती है।

90. Volatility– इसका मतलब शेयर की कीमत में कितनी जल्दी बदलाव होता है। ये कमी और तेजी दोनों हो सकती है।

जो शेयर जितना ज्यादा वोलेटाइल होगा उसमें नफा और नुकसान होने की संभावना उतनी ही ज्यादा होगी।

91. Volume – ये शेयर की खरीदी और बिक्री यानि ट्रेडिंग की संख्या बताता है।

मान लीजिए आज किसी कंपनी के 100 शेयर बिके तो जाहिर है कि ये 100 शेयर खरीदे भी गए हैं। ऐसे में उन शेयर्स का वॉल्यूम 100 कहा जाएगा।

वाॅल्यूम को घंटे, दिन या फिर मिनट के हिसाब से मापा जा सकता है। यानि एक घंटे का वॉल्यूम 100 था या दिन भर का वॉल्यूम 500 रहा।

Conclusion – share market kya hai

दोस्तों आज आपने पढ़ा stock market terminology in Hindi. इस बात का हमेशा ध्यान रखिए कि कंपनी का analysis multiple factors पर किया जाता है। लेकिन इसके साथ-साथ आपका patience और समझ बहुत जरूरी है।

असल में लोग जल्दी पैसा कमाने के चक्कर में जब मार्केट ऊपर जा रहा होता है तो झटपट पैसा लगा देते हैं। इसी तरह कीमतें घटने पर बिना सोचे अच्छे शेयर भी बेच देते हैं। इसकी वजह से बाद में पछताना पड़ता है। आप ऐसा न करें।

शेयर मार्केट एक समंदर की तरह गहरा है। इसलिए एक ही आर्टिकल में सारी जानकारी नहीं दी जा सकती। हम आगे भी आपके लिए बहुत सी information लाते रहेंगे जो नए या पुराने हर तरह के निवेशकों के काम आएगी।

आप भी अपडेटेड रहना चाहते हैं तो हमें सब्स्क्राइब कर सकते हैं। कोई टॉपिक समझ न आये या किसी खास टॉपिक पर जानकारी चाहते हों तो हमें कमेंट सेक्शन में जरूर बताएं या फिर आप हमसे संपर्क भी कर सकते है |

Article by – NIDHI NEER

Comments 2

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *